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गरीब रिक्‍शेवाले कहां जाएंगे

Posted on 22nd October 2011 in Chauthi Duniya (Hindi Weekly)

मानव श्रम के दोहन के सबसे स्पष्ट उदाहरणों में से एक है सड़कों पर चलने वाला रिक्शा. और यह रोजी-रोटी कमाने के सबसे पुराने तरीक़ों में से भी एक है. न जाने कब से इस सवारी के घूमते तीन चक्कों के साथ न जाने कितनी ज़िंदगियों की क़िस्मत घूमती रही है. अशिक्षा और भूमिहीनता के चलते भुखमरी झेलने को अभिशप्त समाज के सबसे निचले और कमज़ोर तबके के लिए रिक्शा पेट पालने का अभिन्न और अक्सर एकमात्र साधन रहा है. सदियों से रिक्शेवालों का यह तबका दूसरे भारत या दूसरे हिंदुस्तान का आईना भी रहा है. लेकिन दिल्ली सरकार और दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) का वश चले तो वे राजधानी की सड़कों पर रिक्शों का चलना ही बंद कर दें. तभी तो अदालतों से बार-बार मनाही के बावजूद एमसीडी दिल्ली की सड़कों पर रिक्शों की संख्या 99 हज़ार तक सीमित करना चाहता है. एक अनुमान के मुताबिक़, दिल्ली में पांच लाख से ज़्यादा रिक्शे सड़कों पर दौड़ते हैं और क़रीब चालीस लाख लोगों की दो जून की रोटी इन रिक्शों पर आश्रित है. एमसीडी की मानें तो रिक्शा सड़कों पर यातायात के लिए सबसे बड़ी रुकावट है और वह इसी वजह से इनकी संख्या कम करना चाहता है. टाटा और फोर्ड जैसी कंपनियों द्वारा निर्मित नए जमाने की तेज़ रफ्तार कारों के लिए मानव चालित रिक्शे की कछुआ चाल अवरोध का कारण तो है ही, उससे ज़्यादा यह समाज के समृद्ध तबके की आंखों की किरकिरी है. यह समाज का वह हिस्सा है, जिसे ध्यान में रखकर तमाम आर्थिक नीतियां आज देश में बनती हैं. तभी तो कारों, मोटरसाइकिलों एवं मोबाइलों की क़ीमतें हर साल कम होती हैं, लेकिन चावल-दाल की क़ीमत कभी कम नहीं होती. एमसीडी इसी तबके की पसंद का खयाल रखते हुए रिक्शों को राजधानी की सड़कों से ओझल करना चाहता है. उसे न तो चार लाख बेरोज़गारों और पैंतीस लाख ज़िंदगियों के भविष्य की चिंता है, न ही लगातार प्रदूषण से बेहाल होती दिल्ली के पर्यावरण की.

दिल्ली सरकार और एमसीडी राजधानी की सड़कों पर मानव चालित रिक्शों की संख्या को केवल सीमित ही नहीं करना चाहते, बल्कि उन्हें धीरे-धीरे पूरी तरह ख़त्म करने की सोच रहे हैं. नगर निगम इसकी जगह सौर ऊर्जा से चलने वाले इलेक्ट्रिक रिक्शा चलाने की योजना बना रहा है. निगम का तर्क है कि तेज़ गति से चलने वाले इलेक्ट्रिक रिक्शे दिल्ली को यातायात जाम से निजात दिलाने में मददगार होंगे.

दरअसल, एमसीडी ने एक क़ानून के तहत राजधानी में रिक्शों के लिए लाइसेंसों की संख्या 99 हज़ार तक सीमित कर दी थी. एक एनजीओ ने इसके ख़िला़फ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की. इस साल 10 फरवरी को हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले के द्वारा इस क़ानून को निरस्त कर दिया. कोर्ट ने एमसीडी को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि सड़कों पर लाखों की संख्या में दौड़ रही कारों और मोटरसाइकिलों को कम करने के लिए नीति पहले बनानी चाहिए, क्योंकि ये राजधानी के पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं. लेकिन एमसीडी ने हाईकोर्ट के फैसले के ख़िला़फ सुप्रीम कोर्ट में अपील की. बीते 5 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने उसकी इस अपील को ख़ारिज करते हुए स्पष्ट कर दिया कि रिक्शा चलाना हर इंसान को संविधान से मिली रोज़गार की स्वतंत्रता के दायरे में आता है और इसे छीनने का कोई हक एमसीडी के पास नहीं है. निगम को नसीहत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि पेट्रोल, डीजल और सीएनजी से चलने वाली गाड़ियों की बढ़ती संख्या पर अंकुश लगाना ज़्यादा ज़रूरी है. अदालत के इस फैसले से रिक्शाचालकों को फिलहाल राहत भले मिल गई हो, लेकिन एमसीडी और सरकार के रवैये को देखते हुए इसकी कोई गारंटी नहीं कि भविष्य में फिर ऐसे किसी क़ानून की मदद से उनके सिर पर तलवार नहीं लटकेगी.

दिल्ली सरकार और एमसीडी राजधानी की सड़कों पर मानव चालित रिक्शों की संख्या को केवल सीमित ही नहीं करना चाहते, बल्कि उन्हें धीरे-धीरे पूरी तरह ख़त्म करने की सोच रहे हैं. नगर निगम इसकी जगह सौर ऊर्जा से चलने वाले इलेक्ट्रिक रिक्शा चलाने की योजना बना रहा है. निगम का तर्क है कि तेज़ गति से चलने वाले इलेक्ट्रिक रिक्शे दिल्ली को यातायात जाम से निजात दिलाने में मददगार होंगे. चौथी दुनिया ने इस संबंध में दिल्ली के मेयर पृथ्वीराज चौहान से बात की तो उन्होंने यह तो नहीं माना कि निगम राजधानी की सड़कों से रिक्शों को पूरी तरह हटाना चाहता है, लेकिन यह ज़रूर कहा कि रिक्शा यातायात की चाल को धीमा करता है. शायद चौहान को यह नहीं पता कि दिल्ली के कई हिस्सों में रिक्शों के प्रवेश पर प्रतिबंध है, फिर भी इन इलाक़ों में यातायात जाम की बात आम है. एमसीडी की इस मुहिम में दिल्ली सरकार भी पीछे नहीं है. अक्टूबर में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों से पहले राजधानी की यातायात व्यवस्था को ईको फ्रेंडली बनाने की तैयारी है. इसके लिए बैटरी से चलने वाले रिक्शा ई-रिक को लांच किया गया है. क्या सरकार यह नहीं जानती कि पर्यावरण को प्रदूषित करने में मानव चालित रिक्शों का कोई योगदान नहीं, बल्कि इसके लिए पेट्रोल और डीजल से चलने वाली गाड़ियां ज़िम्मेदार हैं? सरकार और एमसीडी मुद्दे से जुड़े मानवीय पहलुओं की भी अनदेखी कर रहे हैं. राजधानी या देश के किसी भी हिस्से में रिक्शा चलाने वाले अधिकांश लोग निरक्षर और अप्रशिक्षित होते हैं. कहीं नौकरी नहीं मिली, भुखमरी की नौबत आ गई तो भाड़े पर रिक्शा चलाने लगे. यदि उनसे रोज़गार का यह साधन भी छीन लिया गया तो उनकी ज़िंदगी में पूरी तरह अंधेरा छा जाएगा. इस मुद्दे का एक आर्थिक पहलू भी है. सौर ऊर्जा से चलने वाले इलेक्ट्रिक रिक्शे की क़ीमत 30 से 40 हज़ार के क़रीब है, दिल्ली सरकार द्वारा शुरू किए गए ई-रिक की क़ीमत एक लाख 50 हज़ार रुपये है, जबकि मानव चालित रिक्शे की क़ीमत केवल 10-12 हज़ार रुपये होती है. ग़रीब रिक्शा चालकों के पास इलेक्ट्रिक रिक्शा ख़रीदने के लिए पैसे कहां से आएंगे, यह भी एक बड़ी समस्या है. सरकार या एमसीडी के पास इसके लिए कोई योजना नहीं है. निजी या सरकारी बैंकों से ॠण उपलब्ध कराने की योजना बनी भी तो ब्याज के बोझ तले इनका जीवन नर्क होकर रह जाएगा. दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनॉट प्लेस इलाक़े में दिन और रात का फर्क़ करना मुश्किल है. सूरज की रोशनी कम होते ही पब-रेस्तराओं एवं सजी हुई दुकानों से निकलते बहुरंगे प्रकाश के साथ सड़क के दोनों किनारे लगी स्ट्रीट लाइट्‌स यह एहसास ही नहीं होने देती कि दिन कब गुज़र गया, लेकिन इस इलाक़े से कुछ ही दूर स्थित नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के आसपास रिक्शा चलाने वाला उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले का रहमत अली दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद भी रात को ठीक से सो नहीं पाता. दिल्ली में अकेले रह रहे रहमत अली के ऊपर पत्नी और पांच बच्चों के अलावा बूढ़े मां-बाप की भी ज़िम्मेदारी है. वह सुबह सात बजे से लेकर शाम के सात बजे तक सवारियों को यहां से वहां ले जाता है और औसतन 150-200 रुपये की कमाई कर लेता है, लेकिन अपना रिक्शा न होने की वजह से उसे रोजाना 50 रुपये इसके मालिक को देने पड़ते हैं. बाक़ी पैसों में वह ख़ुद क्या खाए और घरवालों को क्या भेजे, यही सोच-सोचकर उसकी रात बीत जाती है. वह रात को भी रिक्शा चलाना चाहता है, लेकिन रिक्शे का मालिक ऐसा करने नहीं देता, क्योंकि उसने नाइट शिफ्ट के लिए किसी दूसरे शख्स को रिक्शा किराए पर दे रखा है.

बिहार के पूर्णिया ज़िले से आए 60 साल के नवल कामत का किस्सा तो इससे भी ज़्यादा दर्दनाक है. गांव में मज़दूरी करके जीवनयापन कर रहे नवल की पत्नी की चार साल पहले मौत हो गई. पत्नी की मौत के बाद उसकी सारी उम्मीदें दो जवान बेटों पर टिकी थीं, लेकिन बेटों ने ऐसा रंग बदला कि उसे घर से भागने को मजबूर होना पड़ा. घरवालों से निराश वह किसी तरह दिल्ली पहुंचा. काम की तलाश में दो-तीन दिनों तक यहां-वहां घूमता रहा, लेकिन कहीं काम नहीं मिला. भूख से बेहाल उसने रिक्शा चलाने की सोची, क्योंकि वह पढ़ने-लिखने की बात तो दूर, ढंग से हिंदी बोल भी नहीं सकता था. वह ढाई साल से रिक्शा चलाकर किसी तरह ज़िंदा है, बढ़ती उम्र में दूसरे इंसानों का बोझ ढोते-ढोते वह कई बीमारियों का शिकार भी हो चुका है, लेकिन चाहे भी तो काम छोड़ नहीं सकता. उसके पास रोज़गार का और कोई साधन नहीं है और अपने गांव वापस जा नहीं सकता. कमोबेश यही हाल बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा और राजस्थान जैसे राज्यों से आने वाले हर रिक्शाचालक का है. लेकिन एमसीडी को इनकी कोई चिंता नहीं है. उड़ीसा के मयूरभंज ज़िले के बदरी ओरांव को एमसीडी के इस क़ानून के बारे में ज़्यादा नहीं पता, लेकिन बताए जाने पर वह यही कहता है कि यदि ऐसा हुआ तो उसके पास दो ही विकल्प बचेंगे, छोटे-मोटे अपराध कर अपने और अपने परिवार का पेट पाले या फिर उन्हें मारकर ख़ुद भी मौत के हवाले हो जाए.

एमसीडी के इस क़ानून में वैसे भी कई अड़चनें हैं. रिक्शों की संख्या 99 हज़ार तक सीमित करने के बाद भी लाखों रिक्शे सड़कों पर दौड़ रहे हैं तो इसके लिए नगर निगम के अधिकारियों का भ्रष्ट रवैया और राजधानी में सक्रिय रिक्शा मा़फिया ज़िम्मेदार हैं. दिल्ली में कुछेक हज़ार रिक्शाचालकों के पास ही अपना रिक्शा है. अधिकतर लोग किराए पर लेकर रिक्शा चलाते हैं, जिसका मालिकाना हक इन्हीं माफिया तत्वों के हाथों में होता है. अधिकारियों की मिलीभगत से एक-एक आदमी हज़ारों रिक्शे चलवाता है और ग़रीब रिक्शाचालकों के ख़ून की क़ीमत पर करोड़ों की कमाई करता है. पृथ्वीराज चौहान भी यह स्वीकार करते हैं कि दिल्ली की सड़कों पर चलने वाले अधिकांश रिक्शों के पास लाइसेंस नहीं है. वह बताते हैं कि 99 हज़ार की सीलिंग से संबंधित क़ानून को अदालत ने मान लिया होता तो इस पर लगाम कसी जा सकती थी. मतलब यह कि एमसीडी अपने भ्रष्ट अधिकारियों को काबू में नहीं कर सकता, लेकिन ग़रीब रिक्शाचालकों के पेट पर लात मारने के लिए आमादा है. मानो इस देश में सारे क़ानून ग़रीबों के लिए ही बनाए जाते हैं.

सवाल केवल एमसीडी के इस क़ानून का ही नहीं है, सवाल निगम के आकाओं के नज़रिए का भी है. लंदन, सिंगापुर, न्यूयॉर्क, बीजिंग जैसे शहरों में आज बड़ी गाड़ियों के मुक़ाबले रिक्शों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. इसकी वजह यह है कि इसमें ईंधन की खपत नहीं होती और प्रदूषण पैदा नहीं होता. पर्यावरण विशेषज्ञों की राय में प्रदूषण का बढ़ता स्तर मनुष्य के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन चुका है. दिल्ली को पहले ही दुनिया के सबसे प्रदूषित महानगरों में गिना जाता है. इसके बावजूद राज्य सरकार और एमसीडी बड़ी गाड़ियों की संख्या को सीमित करने के बारे में नहीं सोच रहे, बल्कि कमज़ोर और विकल्पहीन रिक्शाचालकों के भविष्य के साथ खेलने की कोशिश कर रहे हैं. सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग अक्सर वास्तविकता से दूर हो जाते हैं, ऐसे तत्वों से घिर जाते हैं, जो उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त से रूबरू नहीं कराते, बल्कि हवा-हवाई बातें करके अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगे रहते हैं. दिल्ली सरकार और एमसीडी में भी आज ऐसे ही अधिकारियों का बोलबाला है, जिन्हें पेट्रोल और डीजल की गंध से उबकाई नहीं आती, लेकिन इंसानों के पसीने की बदबू से उनका जी मितलाने लगता है.

http://www.chauthiduniya.com/2010/08/garib-rikashevale-kahan-jayenge.html

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